एयरपोर्ट पर सफाई करने वाले आमिर कुतुब ने कैसे बनाई 10 करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनी

नई दिल्ली@ आमिर कुतुब, अभी महज 31 साल के हैं और ऑस्ट्रेलिया बेस्ड एक मल्टीनेशनल डिजिटल फर्म के मालिक हैं, जिसका टर्नओवर दस करोड़ है। चार देशों में आमिर की कंपनी की मौजूदगी है। आमिर कभी एयरपोर्ट पर सफाई का काम किया करते थे। घरों तक अखबार पहुंचाने का काम भी किया। लेकिन खुद का बिजनेस सेट करने का जुनून इस कदर उन पर छाया था कि कोई चुनौती उन्हें डिगा नहीं सकी। उन्होंने हमारे साथ अपनी सफलता की पूरी कहानी शेयर की है, पढ़िए उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

कॉलेज में पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा था

मैं अलीगढ़ की एक मिडिल क्लास फैमिली से ताल्लुक रखता हूं। पिताजी सरकारी नौकरी में थे। मां हाउस वाइफ हैं। पिताजी की शुरू से ही ये ख्वाहिश थी कि बेटा बड़ा होकर डॉक्टर या इंजीनियर बने। इसलिए 12वीं के बाद मेरा एडमिशन बीटेक में करवाया गया। मेरे सब दोस्त मैकेनिकल ब्रांच ले रहे थे। सबने कहा, इसमें स्कोप अच्छा है तो मैंने भी मैकेनिकल ब्रांच ले ली। मुझे पढ़ाई में ज्यादा इंटरेस्ट ही नहीं आ रहा था। मैं ये नहीं समझ पा रहा था कि जो मैं पढ़ रहा हूं, वो जिंदगी में कैसे काम आएगा। यही सोचकर मन में हताश हो जाता था। मन नहीं लगता था तो नंबर भी कम आते थे। एक बार तो टीचर ने बोल दिया था कि, तुम जिंदगी में कुछ कर नहीं पाओगे, क्योंकि तुम्हारा पढ़ाई में मन ही नहीं लगता।

पढ़ाई में मन नहीं लगा तो एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज में लग गए जब सेकंड ईयर में आया तो मैंने एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज में पार्टिसिपेट करना शुरू कर दिया। कॉलेज फेस्ट हुआ तो उसमें पार्टिसिपेट किया और मुझे अवॉर्ड भी मिला। पढ़ाई के अलावा जो-जो हो सकता था वो मैं सब कर रहा था। सेकंड ईयर में ही मन में ख्याल आया कि यूनिवर्सिटी में कोई सोशल नेटवर्क नहीं है तो क्यों न कोई सोशल नेटवर्किंग ऐप बनाया जाए।

दोस्तों ने मजाक उड़ाया। बोले कि, भाई तू मैकेनिकल ब्रांच से है और बात कर रहा है ऐप बनाने की। तुझे कोडिंग भी नहीं आती। कैसे बनाएगा ऐप। ये वो टाइम था जब फेसबुक भी नया था। मैंने गूगल से कोडिंग सीखनी शुरू कर दी। चार महीने तक ऐप बनाने जितनी जरूरी कोडिंग मुझे आने लगी थी। फिर अपने एक दोस्त के साथ मिलकर हमने सोशल नेटवर्किंग ऐप बनाई और उसे लॉन्च कर दिया। हफ्तेभर में ही दस हजार स्टूडेंट्स ने उसे ज्वॉइन कर लिया। उसमें सब एक-दूसरे से बात कर सकते थे। फोटो शेयर कर सकते थे। वो प्रोजेक्ट काफी सक्सेस रहा। कॉलेज में मैगजीन नहीं थी तो सोचा कि मैगजीन शुरू करना चाहिए। मैंने स्पॉन्सर ढूंढ़ना शुरू कर दिए। लोगों से मिला तो उन्होंने कहा कि स्पॉन्सरशिप ऐसे नहीं मिलती। आपको प्रपोजल बनाकर लाना पड़ेगा। फिर बात हो पाएगी। फिर गूगल पर ही प्रपोजल बनाना सीखा और दोबारा उन लोगों से मिला।

फाइनली एक स्पॉन्सर मैगजीन के लिए मिल गया। कॉलेज में इलेक्शन हुए तो सेक्रेटरी की पोस्ट के लिए मैं खड़ा हुआ और जीता भी। जब सेक्रेटरी बना तो लीडरशिप स्किल्स सीखने को मिलीं। इस तरह से कॉलेज मेरे लिए ट्रेनिंग स्कूल की तरह हो गया था। मैगजीन के बहाने मार्केट को समझा।

इलेक्शन में पार्टिसिपेट करके लीडरशिप सीखी। इन सब चीजों से मेरा कॉन्फिडेंस बहुत ज्यादा बढ़ा। इसके बाद मैं यह डिसाइड कर चुका था मुझे अपना ही काम करना है और टेक्नोलॉजी से रिलेटेड ही कुछ करना है। लेकिन घरवाले पीछे पड़े थे कि जॉब करो। टीसीएस में मेरा प्लेसमेंट हो गया लेकिन मैंने वो जॉब ज्वॉइन नहीं की। बाद में दिल्ली आया तो यहां होंडा में सिलेक्शन हो गया। जॉब मिल गई तो घरवाले भी खुश हो गए। होंडा में भी जब गया तो वहां मैंने सिस्टम सुधारने पर काम किया। जो मैन्युअल काम था, उसे बदलकर ऑनलाइन कर दिया। यह काम अपने ऑफिस वर्क के अलावा किया था। जीएम काफी खुश हुए और होंडा ने मेरे सिस्टम को कई जगह अपनी कंपनियों में लागू कर दिया। यहां नौकरी चल रही थी लेकिन मैं खुश नहीं था क्योंकि मुझे तो अपना काम करना था। एक साल बाद मैंने रिजाइन कर दिया।

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