कश्मीर: इतिहास, सत्ता और सांस्कृतिक परिवर्तन की कहानी

  - रामगोपाल जाट,  वरिष्ठ पत्रकार - 

कश्मीर को अक्सर ‘धरती का स्वर्ग’ कहा जाता है। इसकी खूबसूरत वादियां, बहती नदियां और बर्फ से ढकी पहाड़ियां केवल भौगोलिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के कारण भी अद्वितीय रही हैं। यह भूमि प्राचीन काल में वैदिक धर्म, बौद्ध मत और शैव दर्शन की गहराइयों को आत्मसात करती रही है, लेकिन 14वीं शताब्दी में एक बड़ा परिवर्तन हुआ, जब कश्मीर में पहली बार एक मुस्लिम शासक सत्ता में आया। यह परिवर्तन केवल एक सत्ता परिवर्तन नहीं था, बल्कि कश्मीर के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में एक स्थायी बदलाव का सूत्रपात भी था।

यह लेख उस ऐतिहासिक क्षण की गहराई में जाकर यह समझने का प्रयास करता है कि कश्मीर में इस्लाम कैसे आया, पहले मुस्लिम शासक कौन थे और उन्होंने इस क्षेत्र को किस तरह प्रभावित किया। प्राचीन काल में कश्मीर बौद्ध और हिन्दू दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। यहां नालंदा और विक्रमशिला के समकक्ष शिक्षण संस्थान थे। शंकराचार्य का दर्शन, अभिनवगुप्त की शैव तांत्रिक परंपरा और बौद्धों की महायान शाखा यहां फली-फूली। कल्हण द्वारा रचित ‘राजतरंगिणी’ इस क्षेत्र के राजाओं, उनकी नीतियों और सामाजिक जीवन का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है, लेकिन 12वीं और 13वीं शताब्दी के आते-आते भारत के उत्तरी क्षेत्रों में मुस्लिम सुल्तानों की उपस्थिति बढ़ने लगी थी। यद्यपि कश्मीर तक इनका प्रभाव सीधे नहीं पहुंचा, लेकिन व्यापारियों और सूफी संतों के माध्यम से इस्लाम ने धीरे-धीरे कश्मीर की धरती पर पैर जमाने शुरू कर दिए। सन् 1330 के दशक में कश्मीर में लोहार वंश का पतन हो रहा था। राजा सुह देव का शासन कमजोर हो चुका था और चारों ओर अव्यवस्था थी। इसी दौरान लद्दाख से आए एक व्यक्ति, रिनचेन ने कश्मीर की राजनीति में प्रवेश किया। रिनचेन बुद्ध धर्म का अनुयायी था, लेकिन जब उसने सत्ता हासिल की तो उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम सदरुद्दीन रखा।

रिनचेन ने इस्लाम को निजी आस्था के रूप में अपनाया, लेकिन उसका शासन केवल तीन वर्षों तक चला। हालांकि कुछ इतिहासकार उसे पहला मुस्लिम शासक मानते हैं, किंतु यह बात महत्वपूर्ण है कि वह जन्म से मुस्लिम नहीं था और न ही उसके शासनकाल में इस्लामिक शासन व्यवस्था को औपचारिक रूप से लागू किया गया। सन् 1339 ईस्वी में कश्मीर में वह क्षण आया, जब एक जन्म से मुसलमान व्यक्ति ने सत्ता संभाली। उसका नाम था शम्सुद्दीन शाह मीर। वह तुर्क या अफगान मूल का था और संभवतः दक्षिण एशिया के किसी क्षेत्र से कश्मीर पहुँचा था। पहले वह सुह देव और बाद में रिनचेन के दरबार में एक सैन्य सरदार के रूप में कार्यरत रहा। उसने बड़ी सूझ-बूझ से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ीं और अंततः रिनचेन की मृत्यु और सत्ता संघर्ष के बीच उसने कश्मीर की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

शाह मीर ने कश्मीर में 'शाह मीर वंश' की स्थापना की, जो लगभग दो शताब्दियों तक (1339–1561) चला। यह वंश कश्मीर के इतिहास में एक नया अध्याय था, जहां इस्लामी शासन, प्रशासन और न्याय प्रणाली को औपचारिक रूप से स्थापित किया गया। शाह मीर का शासन केवल एक धार्मिक परिवर्तन का प्रतीक नहीं था, बल्कि वह एक सशक्त राजनीतिक प्रशासक भी था। उसने राज्य में प्रशासनिक स्थिरता लाने का प्रयास किया, कर व्यवस्था को दुरुस्त किया और सेना को संगठित किया। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई, जिससे अधिकांश हिन्दू और बौद्ध प्रजा में असंतोष नहीं फैला।

उसके शासनकाल में कश्मीर में सूफी संतों का प्रभाव भी बढ़ा। सय्यद अली हमदानी जैसे सूफी संतों ने इस्लाम को आध्यात्मिक और मानवीय मूल्यों के साथ प्रस्तुत किया, जिससे आम लोगों के बीच इस्लाम की स्वीकार्यता बढ़ी। यह परिवर्तन तलवार की बजाय विचार और विश्वास के ज़रिये आया। यह सवाल अक्सर उठता है कि कश्मीर में इस्लाम कैसे फैला? तलवार के ज़रिये या सूफी संवाद के माध्यम से? इतिहासकारों का मानना है कि कश्मीर में इस्लाम का फैलाव अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था। शम्सुद्दीन शाह मीर और उसके उत्तराधिकारियों ने स्थानीय संस्कृति को नष्ट नहीं किया, बल्कि कई मामलों में उसमें समन्वय स्थापित किया।

सूफी संतों की सरल भाषा, रहस्यवादी विचार और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं ने जनता को प्रभावित किया। यह वह दौर था जब धार्मिक संवाद संभव था, और यही कारण है कि आज भी कश्मीर की संस्कृति में एक विशेष "सिंक्रेटिज्म" या "संस्कृतियों का मेल" देखा जा सकता है। शाह मीर वंश के बाद कश्मीर में चक वंश और फिर मुगल शासन आया। लेकिन शाह मीर की भूमिका इसलिए विशेष है क्योंकि उसने मुस्लिम शासन की नींव डाली थी और कश्मीर को एक नई ऐतिहासिक दिशा दी थी। यह बात गौर करने योग्य है कि शाह मीर के वंश के कई शासकों ने कट्टरता भी दिखाई, विशेष रूप से सुल्तान सिकंदर, जिसे 'सिकंदर बुतशिकन' भी कहा जाता है। उसके काल में मंदिरों को नष्ट किए जाने और जबरन धर्मांतरण के आरोप लगते हैं। यह काल कश्मीर के धार्मिक सौहार्द के लिए काला अध्याय रहा, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि वह पूरे वंश का प्रतिनिधि नहीं था।

आज जब हम कश्मीर की बात करते हैं, तो धार्मिक पहचान, राजनीति और अलगाववाद जैसे विषय जुड़ जाते हैं। ऐसे में शाह मीर का इतिहास एक प्रतीक बन जाता है। यह देखने के लिए कि कैसे धर्म और सत्ता एक दूसरे से जुड़े, और कैसे बदलाव का तरीका तलवार नहीं, विचार और रणनीति हो सकता है। शाह मीर ने जिस रणनीति, धैर्य और सांस्कृतिक समझ के साथ कश्मीर में शासन की नींव रखी, वह आज के नेताओं और समाज के लिए भी सीखने योग्य है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सत्ता केवल बाहुबल से नहीं, बल्कि विवेक और सहिष्णुता से भी प्राप्त की जा सकती है। शाह मीर की सत्ता प्राप्ति कश्मीर के इतिहास में केवल एक शासन परिवर्तन नहीं था। यह उस परिवर्तन का प्रतीक था, जिसने कश्मीर की संस्कृति, धर्म और समाज की धारा को एक नया मोड़ दिया। लेकिन यह भी सच है कि वह परिवर्तन तलवार की धार से नहीं, बल्कि राजनीति की समझ, सूफी विचारों और सांस्कृतिक सहिष्णुता के बल पर आया। आज जब हम इतिहास की ओर लौटते हैं, तो हमें यह समझना चाहिए कि वह केवल अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान का दर्पण और भविष्य का मार्गदर्शक भी है। कश्मीर के पहले मुस्लिम शासक की कहानी भी यही सिखाती है कि सत्ता, धर्म और समाज को एक दूसरे से जोड़ने का सबसे अच्छा माध्यम संवाद और सहिष्णुता है, कट्टरता का समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।