आज भारतीय बौद्धिक जगत अपनी खामोशी की वज़ह से अविश्वसनीय और बदनाम है। इसे ही निर्मल वर्मा ने ‘चुनी हुई चुप्पी’ कहा था, जिसे सामान्यतः ‘सलेक्टिव खामोशी’ कहा जाता है। क्या एक लोकतांत्रिक देश में सेलेक्टिव चुप्पी और सलेक्टिव होना स्वस्थ प्रवृत्ति मानी है सकती है ? - हरीश शिवनानी
भारतीय राजनीति,साहित्य,संस्कृति और अकादमिक दायरों में जिस पदबंध का प्रयोग जोर-शोर से किया जाता है, वो है- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। जितने जोर-शोर से इसे दोहराया जाता है उससे भी दुगुने मौकों पर इसका दुरुपयोग भी उतने ही खुले तौर पर किया जाता है। हालिया एक कॉमेडियन कुणाल कामरा के प्रकरण से ऐसा ही कुछ हुआ जा रहा है।
जो लोग यह ‘तर्क’ देते हैं कि अगर आप किसी से असहमत भी हों, तब भी आपको किसी के बोलने के अधिकार का समर्थन करना ही चाहिए। ‘फ्रीडम ऑफ़ स्पीच’ पर तभी प्रश्न उठाए जा सकते हैं जब वह हिंसा फैला रही हो। कामरा ने ऐसा कुछ नहीं किया है। दूसरी ओर सुतर्क यह है कि किसी के ‘बोलने’ इसका व्यावहारिक और तर्कसंगत पहलू भी होना चाहिए कि उसके ‘बोलने’ का वास्तविक मंतव्य,उद्देश्य क्या है। कोई अगर कॉमेडी की आड़ या अन्य किसी भी नज़रिए से किसी व्यक्ति, जाति, धर्म, संप्रदाय, समुदाय या किसी भी उद्देश्य से निर्मित समूह के प्रति सार्वजनिक रूप से अभद्र-अशालीन-अमर्यादित भाषा-बोली का प्रयोग कर उसकी मानहानि करते हैं, सामाजिक रूप से अपमानित करते हैं, फूहड़ तरीके से हँसी-मखौल उड़ाते हैं या उसके हितों नुकसान करते हैं तो यह भी उसके प्रति वाचिक हिंसा,सार्वजनिक अपमान करना ही हुआ, इसे ‘स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति’ तो कतई नहीं कहा जा सकता। कामरा ने पिछले दिनों अपने कॉमेडी शो में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के तरफ़ संकेत कर जो कुछ कहा है, उसे समझना,उसके निहितार्थ निकालना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह महज़ कॉमेडी नहीं, विशुद्ध रूप से अभद्र तरीक़े का राजनीतिक वक्तव्य है। भारत में दल-बदल कर सत्ता हासिल करने का लंबा राजनीतिक इतिहास रहा है। 1977 और 1979 में हरियाणा में मुख्यमंत्री भजनलाल के समूची कैबिनेट सहित दलबदल करने का इतिहास तो जाना-पहचाना है ही, राजनीतिक मुहावरा ‘आयाराम-गयाराम’ भी हरियाणा के एक विधायक की ही देन है।
अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की आड़ में हमें उन मूल्यों को भी नहीं भूलना चाहिए जो एक सभ्य,सुसंस्कृत, मर्यादित और शिष्ट समाज की बुनियाद होते हैं। अनुशासन, मर्यादाओं की एक सीमा-रेखा होती है। हर अभिव्यक्ति के मायने अराजकता नहीं हो सकता।भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत नागरिकों को दी गई है। हालांकि यह भी असीम नहीं है।इसे अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन रखा गया है। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए वाचिक और शाब्दिक हिंसा पर भी अंकुश उतना ही ज़रूरी है जितना दैहिक हिंसा पर।
भारतीय बौद्धिक जगत की दिक्कतें यह भी कम नहीं कि उसकी बौद्धिकता किसी व्यक्ति, समूह, जाति,समुदाय को परखने,उसका मूल्यांकन करने या उसके पक्ष-विपक्ष में खड़े होने के मूल में उसके पैमाने, उसके निकष, मापदंड उसकी विचारधारा के अनुरूप बदलते रहते हैं। कला और साहित्य-संस्कृति की स्वायत्तता के स्वयम्भू ठेकेदारों ने अपने स्तर पर एक पैमाना बना रखा है जिससे वे अभियक्ति की आज़ादी की हद तय करते है। सच यही है कि आज भारतीय बौद्धिक जगत अपनी इस खामोशी की वज़ह से ज्यादा अविश्वसनीय और बदनाम है। इसे ही निर्मल वर्मा ने ‘चुनी हुई चुप्पी’ कहा था, जिसे सामान्यतः ‘सलेक्टिव खामोशी’ कहा जाता है। यदि कोई अपनी वैचारिकता के निकट है तो गलत होकर भी सही, वरना विरोधी होने पर खामोशी। क्या एक लोकतांत्रिक देश में सेलेक्टिव चुप्पी और सलेक्टिव होना स्वस्थ प्रवृत्ति मानी जा सकती है ?
कहने को देशी-विदेशी सिनेमा या सीरीज़ में देशज शब्दों की भरमार होती है। ऑस्कर पाने वाली 'अनोरा' में एक गाली का प्रयोग सैकड़ों बार हुआ। मार्टिन स्कोर्सेसी जैसे बड़े फ़िल्मकार ने भी 'द वुल्फ़ ऑफ़ वॉल स्ट्रीट' में भी एक यौन शब्द का इस्तेमाल सैकड़ों बार किया। किसी रचना,चाहे वो फ़िल्म हो या किताब, उसमें अगर गाली या कथा या पात्रों के स्तर के अनुसार गालियों या किसी देशज किस्म की भदेस भाषा का प्रोयग होता है तो उसे रचनात्मक अनिवार्यता कही जा सकती है, राही मासूम रज़ा के ‘आधा गांव’ या काशीनाथ सिंह की ‘अस्सी का अस्सी ’ कृति-फ़िल्म; लेकिन आज के दौर में जब ‘स्टैंडिंग कॉमेडी’ के नाम जो छिछोरापन परोसा जाता है,वह अस्वीकार्य है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मर्यादित बोध से होनी चाहिए।
वैसे कामरा का विवादों से पुराना नाता रहा है। वे वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक के संदर्भ में विवादों में रह चुके हैं। नए वीडियो में कामरा ने शिंदे के अलावा मुकेश अंबानी के बेटे का उसके वज़न के लिए भी मज़ाक उड़ाया है। वास्तविकता यह है कि आज के दौर में जब कॉमेडियन का जब मार्केट ठंडा हो जाता है तब वापस मार्केट में चर्चा में आने के लिए धर्म , राजनीतिक, जाति आदि विषयों पर निजी रूप से व्यंग्य करते हैं ताकि विवाद हो और वह फिर चर्चा में आ जाएं। पैसे और चर्चा में बने रहने के लिए उनका एक तरह का पेशा है। इसे आप इस प्रकरण से भी समझ सकते हैं कि इस विवाद के बाद ‘सुपर थैंक्यू’ के नाम पर कामरा को दो दिन में ही लाखों रुपए की फंडिंग हो चुकी है।