संपादकीय:                          सांप्रदायिकता की राजनीति खत्म होना जरूरी..10 साल नहीं; यहां सैकड़ों सालों से है रामभक्त

आज जब धर्म और राजनीति पर हिंदी के प्रगतिशील रचनाकार प्रेमचंद की दशकों पुरानी टिप्पणी याद आ रही है। उन्होंने कहा था..धर्म के साथ राजनीति बहुत खतरनाक हो जाती है। मैं उस धर्म को कभी स्वीकार नहीं करना चाहता, जो मुझे सिखाता हो कि इंसानियत, हमदर्दी और भाईचारा सब कुछ अपने ही धर्म वालों के लिए है; उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं, सभी गैर हैं, उन्हें जिंदा रहने तक का कोई हक नहीं, तो मैं ऐसे धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करूंगा। दुखद है, जब धर्म व राजनीति का मिश्रण बनता है, तो दूसरे धर्म के लोगों के लिए कुछ इसी तरह की बातें कही जाती हैं, जिसके कारण पे्रमचंद के शब्दों में विधर्मी होना ही ज्यादा ठीक है। लेकिन, धर्म और राजनीति का संबंध हमारे समाज में अद्वितीय और गहरा है। लेकिन, यहां यह समझना जरूरी है कि हिंदू धर्म में विश्वास रखने वालों को राजनीतिक फायदे के लिए धोखा दिया जा रहा है। भगवान राम बीजेपी के जन्म से पहले से हैं। परिवारवाद की तुलना में व्यक्तिवाद अधिक खतरनाक माना जाता है, जिसमें एक व्यक्ति सभी निर्णय लेता है। कुछ नेताओं का कहना है कि अगर देश में भगवान श्रीराम की लहर है तो कुछ भी गलत नहीं है। गलत तब होता अगर देश में नाथूराम गोडसे की लहर होती। यह संबंध हमें सिखाता है कि कैसे इन दोनों क्षेत्रों का सही समर्थन लेकर हम समृद्धि और समरसता की दिशा में काम कर सकते हैं। अगर हम धर्म के मूल्यों को मिलाकर राजनीति करते हैं, तो समृद्धि की ऊंचाइयों को छू सकते हैं। भारतीय समाज में सेक्युलरिज्म की आवश्यकता को लेकर बढ़ती चुनौतियों का सामना करते हुए हमें यह समझना होगा कि धर्म और राजनीति को अलग नहीं रखा जा सकता। इस संबंध में सहज समझौता नहीं किया जा सकता है, बल्कि हमें इन दोनों क्षेत्रों के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। आधुनिक समय में, धर्म और राजनीति के बीच शत्रुता की बातें बनी रहती हैं, लेकिन ये दोनों ही विषय हमारे समाज के सुनिश्चित विकास के लिए आवश्यक हैं। राजनीति को धर्म के माध्यम से मूल्यों और नैतिकता के साथ मिलाकर ही सफलता पाई जा सकती है। आधुनिक भारत में, हमें एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो धर्म और राजनीति को संजीवनी बूटी बना सके। हमें यह समझना होगा कि कैसे हम अपने समाज को एक समृद्ध, समरस और सहज समझौते वाले समाज की दिशा में ले जा सकते हैं। धर्म और राजनीति के इस अंतर्संबंध को सहजता और समरसता की दिशा में बदलना हम सभी की जिम्मेदारी है। इसमें नई सोच, नए दृष्टिकोण और सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ताकि हम सभी मिलकर एक समृद्ध और समरस समाज की दिशा में काम कर सकें। समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने धर्म और राजनीति को लेकर एक दिलचस्प बात कही थी। धर्म और राजनीति को एक बताते हुए उन्होंने कहा था, राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति। धर्म का काम है शुभ की स्थापना और अच्छाइयों की ओर प्रेरित करना। वाकई, धर्म और राजनीति को अलग-अलग करके नहीं रखा जा सकता है। दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। ऐसा नहीं है कि अपने देश में धर्म और राजनीति का यह मिश्रण शुरू से रहा है। स्वतंत्र भारत में तो दोनों एक-दूसरे के विपरीत देखे जाते थे। दोनों में मानो शत्रुता का भाव था। यह कुछ हद तक यूरोपीय मॉडल जैसा था, जहां राज-व्यवस्था और चर्च के मध्य अधिकारों को लेकर लंबा संघर्ष चला और दोनों के कार्यों का विभाजन हुआ। भारत में भी शुरुआती दिनों में धार्मिक कार्य धर्म के हिस्से तय किए गए, जबकि राज-व्यवस्था के कार्य राजनीति के हिस्से। इसी कारण हमने देश में ऐसे-ऐसे विकास-कार्य देखे, जिनको आज आधुनिक भारत की नींव कहा जाता है। मगर बाद में राजनीति और धर्म का मिश्रण तैयार करके लोगों को अपने हक में इस्तेमाल करने का काम शुरू किया गया। हालांकि, इसके लिए दोषी कुछ हद तक तत्कालीन सत्ता भी है, क्योंकि वह ऐसी नीतियों को आगे बढ़ाती रही, जिससे तुष्टीकरण के आरोपों को बल मिला और जनता को भरमाना आसान हो गया। अब जब धर्म और राजनीति, दोनों एक-दूसरे में समाते हुए दिख रहे हैं, तब हमें यह समझना होगा कि आखिर क्यों इन दोनों का अलग-अलग रहना ही राष्ट्र के लिए हितकर है? दरअसल, किसी भी धर्मनिरपेक्ष समाज में धर्म को लेकर सत्ता का आग्रही रुख एक बड़े वर्ग को तो खुश कर सकता है, लेकिन अन्य वर्गों को नाराज कर सकता है। इससे विकास के पहिया पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। फिर, धर्म और राजनीति का मिश्रण समाज में वैमनस्य भी बढ़ा सकता है। इन सबको रोकने के लिए जरूरी है कि धर्म और राजनीति की अपनी-अपनी सीमा तय कर दी जाए। विकसित देश इसीलिए तरक्की कर सके, क्योंकि वहां राजनीति ने धर्म को लेकर निरपेक्ष रुख रखा। हरेक राष्ट्र को ऐसा ही करना चाहिए।