महाविद्यालय के प्रशिक्षणात्मक फार्म पर मौजूद है 205 वर्ष पुराना खेजड़ी का वृक्ष
जोबनेर: खेजड़ी पेड़ को संरक्षित करने की जरूरत कुलपति डॉ बलराज सिंह खीप, गुग्गल,रोहिड़ा,खिरनी और केर लुप्त होने की कगार पर साथ ही खेजड़ी के पौधे को संरक्षित करने की जरूरत कुलपति डॉ बलराज सिंह राजस्थान का राज्यवृक्ष खेजड़ी, जिसे पर्यावरण और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, कीट के प्रकोप से जूझ रहा है। इसके अलावा, खीप, गुग्गल, रोहिडा, खिरनी और केर जैसी प्रजातियां भी बीमारियों और कटाई के कारण तेजी से लुप्त होती जा रही है इन पेड़ों को दीमक, इरियोफिस, जड़ छेदक आदि कीट अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं खेजड़ी के पेड़ अब तेजी से खोखले हो रहे हैं और सूखते जा रहे हैं, जिससे क्षेत्र में इनकी संख्या निरंतर घट रही है। पेड़ की जड़ों में दीमक व जड़ छेदक लगने से उनकी जीवनदायिनी क्षमता कमजोर हो गई है। खेजड़ी, जो रेगिस्तान का गौरव माना जाता है, दुनिया भर में प्रसिद्ध है और मारवाड़ की मशहूर सांगरी इन्हीं पेड़ों पर उगती है, जो अब संकट के दौर से गुजर रही है। खेजड़ी को थार का कल्पवृक्ष भी कहा जाता है, और इसे 1983 में राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया था। इस वृक्ष को बचाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। खेजड़ी पेड़ में लू, वर्षा की कमी और आंधियों का सामना करने की अद्भुत क्षमता है, और यही कारण है कि यह अकाल के समय पशुओं के लिए जीवनदायिनी साबित होता आया है। अब इस अद्वितीय गुणों युक्त वृक्ष के संरक्षण के लिए और भी ठोस प्रयासों की आवश्यकता है।
205 साल पुराना खेजड़ी का वृक्ष मौजूद है विश्वविद्यालय जोबनेर में
गौरतलब है कि कृषि विश्वविद्यालय में 205 वर्ष पुराने खेजड़ी के पेड़ के चारों तरफ पक्का निर्माण कर राजस्थानी परंपरा के अनुसार एक मंदिर भी बनाया गया है, यहां पेड़ को दी गई सुरक्षा उसकी असली कीमत को भी प्रदर्शित कर रहा है, खेजड़ी के पेड़ को बचाने के लिए एक संदेश दिया जा रहा है, कुलपति डॉ बलराज सिंह ने कहा कि लुप्त होती प्रजातियों के संरक्षण के लिए मुहिम शुरू करने की आवश्यकता है, साथ ही कृषि छात्रों को प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा रहा है। श्री कर्ण नरेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर में खेजड़ी के पेड़ों के संरक्षण के लिए कृषि वैज्ञानिकों के साथ कुलपति डॉ. बलराज सिंह की अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण चर्चा गई, कार्यक्रम के दौरान लुप्त हो रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए कई सुझाव दिए हैं इसमें जर्मप्लाज्म कलेक्शन प्रमुख है। जर्मप्लाज्म कलेक्शन के माध्यम से खेजड़ी और अन्य पौधों की प्रजातियों को संरक्षित करने में मदद मिल सकती है। इस तकनीक के जरिए पौधों के बीज, जड़ें, और अन्य जैविक सामग्री को संरक्षित कर उनके भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जाता है
संकट का समाधान: संरक्षण और जागरूकता
"मारवाड़ टीक" के नाम से प्रसिद्ध रोहिड़ा वृक्ष भी अब विलुप्ति की कगार पर है। इसी तरह खेजड़ी के वृक्षों का भी संरक्षण बेहद जरूरी हो गया है, ताकि यह अनमोल धरोहर आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह सके।
भविष्य के लिए योजना
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ बलराज सिंह का यह भी कहना है यह भी शोध करने का विषय है पुराने पेड़ों व नए पेड़ों की सांगरी में पोषक तत्व का अंतर क्या है, इस पर तुलनात्मक अध्ययन करने की जरूरत है , यह पहल पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने और आने वाली पीढ़ियों के लिए इन प्रजातियों को संरक्षित रखने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा ।
खेजड़ी के प्रमुख कीट और रोग:
गैनोडर्मा रोग:
यह एक खतरनाक रोग है, जो गेनोडर्मा नामक कवक से होता है इसके संक्रमण से पेड़ मात्र एक वर्ष के भीतर नष्ट हो सकता है। रेतीली मिट्टी में पाया जाने वाला यह कवक पेड़ों की जड़ों में सड़न पैदा करता है, तथा तने पर भफोड बना देता है जिससे पेड़ की वृद्धि और स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इरियोफिस कीट:
यह कीट खेजड़ी के फूलों की मींझर को प्रभावित करता है। इसके कारण सांगरी की जगह गांठें बन जाती हैं, जिन्हें स्थानीय रूप से 'गिरड़ू' कहा जाता है।
जड़ छेदक कीट:
यह कीट पेड़ की जड़ों में सुरंग बनाकर उसे खोखला कर देता है, जिससे गैनोडेमा रोग का संक्रमण बढ़ जाता है जिससे पेड़ कमजोर होकर गिरने की स्थिति में आ सकता है।
बचाव के उपाय
खेजड़ी के पेड़ों को सुरक्षित रखने के लिए छंटाई के दौरान बड़ी टहनियों के शीर्ष पर एक टहनी छोड़नी चाहिए और जड़ों में कवकनाशी दवा का घोल डालना चाहिए भफोड़ा (गेनोड्रमा) नामक कवक से बचाव के लिए 20-30 ग्राम थायोफिनेट मिथाइल फफूंदनाशक को 20 लीटर पानी में मिलाकर उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि यह बीमारी जड़ों को नुकसान पहुंचाती है। कीटों से सुरक्षा के लिए स्कोलीटिड बीटल के नियंत्रण हेतु क्लोरपायरीफ़ॉस 20 ईसी का 2 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर जड़ों में डालना चाहिए।
पोषक तत्वों से भरपूर खेजड़ी: लूंग (पत्ती)और सांगरी का अनमोल उपहार
खेजड़ी की पत्तियां, जिन्हें लूंग कहा जाता है, पोषण से भरपूर होती हैं और बकरी व ऊँट जैसे पशुओं के लिए यह प्रिय आहार है। खेजड़ी की कच्ची फलियां, जिन्हें सांगरी कहते हैं, अपनी अनूठी स्वाद और उपयोगिता के कारण बेहद लोकप्रिय हैं। यह हरी और सूखी दोनों अवस्थाओं में सब्जी और अचार बनाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। कच्ची सांगरी केवल 15-20 दिनों (मध्य अप्रैल से मई के पहले सप्ताह) तक उपलब्ध रहती है, इसलिए इसे सुखाकर वर्षभर के लिए संरक्षित किया जाता है। सांगरी में 8% प्रोटीन, 58% कार्बोहाइड्रेट, 28% फाइबर, 2% वसा, 0.4% कैल्शियम और 0.2% आयरन जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो इसे स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी बनाते हैं।
खेजड़ी का एकमात्र वृक्ष जो नीचे बुवाई करने वाली फसलों के लिए भी रामबाण
कुलपति डॉ. बलराज सिंह का कहना है कि खेजड़ी एक ऐसा वृक्ष है जिसके नीचे किसी भी प्रकार की फसल आसानी से उगाई जा सकती है। खेजड़ी वृक्ष की छाया या किसी विपरीत मौसम की स्थिति का फसल पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।
किसान भाइयों के लिए सिफारिश
खेजड़ी की कम ऊँचाई और अधिक सागरी और लूंग उत्पादन के लिए केंद्रीय शुष्क बागवानी अनुसंधान संस्थान, बीकानेर द्वारा विकसित किस्म “थार शोभा “ को भी किसान भाई लगा सकते हैं
साथ ही बारिश के दिनों में पुराने खेजड़ी वृक्षों के तने के चारों तरफ खाई खोदने से वर्षा जल की पर्याप्त आपूर्ति भी खेजड़ी संरक्षण में लाभदायक साबित होगी।