- गोविंद गोयल -
श्रीगंगानगर।“सुबह 4 से 6 बजे तक ब्लैक आउट, घबराए नहीं आमजन” इस शीर्षक से सुबह 4.40 बजे पीआरओ ऑफिस की ओर से मेल मिला। इससे पहले एक मेल 4.05 बजे मिला था। जिसमें बताया गया था कि ब्लैक आउट की प्रक्रिया फिर शुरू कर दी गयी है। इस मेल मेँ ब्लैक आउट का कोई वक्त अंकित नहीं था। कोई पूछने वाला हो कि मीडिया से जुड़े व्यक्ति तड़के तक आपके मेल की इंतजार मेँ जाग रहे होंगे?
चलो मान लिया कि अखबारों का मॉर्निंग एडिशन स्टाफ काम पर हो तब भी, जब तक अखबार पाठकों तक आयेगा ब्लैक आउट का समय समाप्त हो चुका होगा। अगर सिस्टम और मीडिया मेँ बेहतरीन संवाद सिस्टम होता तो ऐसी नौबत नहीं आती। कोई भी अधिकारी/अनेक अधिकारी मीडिया को फोन कर ये जानकारी दे सकते थे। उन्हें विश्वास मेँ ले सकते थे। ताकि सोशल मीडिया पर ये सब वायरल हो जाता।
जिला प्रशासन के एड्वाइजर को सैल्यूट! मैंने 1971 का युद्ध देखा और सुना। 199 का कार्गिल युद्ध। 2001 मेँ पार्लियामेंट पर हुये हमले के बाद की स्थिति को निकट से देखा। ब्लैक आउट कभी भी पहले टाइम बताकर नहीं किया गया। दिन मेँ कभी भी सायरन बजता...मतलब हवाई हमले की आशंका। नागरिक अलर्ट हो जाएँ....सुरक्षित स्थानों पर चले जाएँ या हो जायें। अंधेरा होने के बाद सायरन बजने का अर्थ होता था कि अब अलर्ट होने के साथ तमाम रोशनी भी बंद करनी है। यहाँ तक की मोमबत्ती भी नहीं जलानी। माचिस की तिल्ली की रोशनी भी नहीं।
मुझे याद है 1971 की जंग मेँ बहुत तड़के माँ अंगीठी पर चाय बना रही थी। क्योंकि परिवार को शहर छोडकर जाना था। अचानक सायरन बजा और माँ ने अंगीठी पर रखे टोपिए का पानी जलती अंगीठी मेँ डाल दिया। वर्तमान मेँ तो ब्लैक आउट को एक इवेंट बनाया जा रहा है। इतने बजे उस शहर मेँ ब्लैक आउट होगा और उतने बजे फलां शहर मेँ। यहाँ सवाल ये बनता है कि दुश्मन देश टाइम बता कर हवाई हमला करेगा क्या ? ब्लैक आउट का अभ्यास तो अचानक होना चाहिए। अंधेरा होने के बाद कभी भी सायरन बजे और पूरा शहर अंधेरे मेँ डूब जाना चाहिये। इसके लिये स्वयं सेवक हों जो सड़क पर आते जाते वाहनों को लाइट बंद करने का आग्रह करे। करें।
बिना सूचना के केवल सायरन की आवाज पर ही नागरिक अपने आप को तैयार करें। ब्लैक आउट ना केवल स्वयं करें, बल्कि आस पास भी करवाएँ तभी तो रिहर्सल का कोई अर्थ है, वरना तो ये सब प्रक्रिया निरर्थक ही है। वर्तमान अधिकारी 1971, 1999 और 2001 की फाइलों को पढ़ कर उसमें से कुछ अच्छा तो ले ही सकते हैं। उस अवधि मेँ यहाँ रहे अधिकारियों से बात कर जानकारी ले सकते हैं। यहाँ के पुराने नागरिकों से संवाद कर बहुत कुछ किया जा सकता है। इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
ये वक्त अहम को छोडकर एक साथ काम करने का है। क्योंकि ऐसा अहम/गुरूर किसी काम का नहीं जिससे नागरिकों के हितों को चोट पहुंचे। शहर का नुकसान हो। राष्ट्र की प्रगति रुके। बेशक ऐसा कोई भी नहीं करना चाहता, परंतु इसके बावजूद अंजाने मेँ ऐसा होता है तो उसे सुधार लेना चाहिये। काम करने वालों से भूल होना स्वाभाविक है। लेकिन बार बार वैसा ही हो तो फिर वो लापरवाही होती है। उम्मीद है सभी पक्ष इस बाबत सार्थक प्रयास करेंगे ताकि प्रशासन को अधिक ऊर्जा इधर ना लगानी पड़े और नागरिक, शहर तथा देश इस स्थिति का एक जुट होकर मुक़ाबला कर सकें।